ओबीसी की संख्या का रहस्य: जातीय जनगणना की जरूरत

नीतीश कुमार जब बिहार के हर एक राजनीतिक दल के प्रतिनिधियों को लेकर दिल्ली आए, तो एकता का एक ऐसा नमूना पेश हुआ जो मौजूदा राजनीति में कम ही दिखता है। मकसद था प्रधानमंत्री से मिलना और उनको जातीय जनगणना की जरूरत के बारे में अवगत कराना। अब यह जान लेना बहुत जरूरी है कि प्रधानमंत्री की पार्टी समय-समय पर अपनी राय बदलती रही है। कभी हां, कभी ना। और अब बीजेपी की मौजूदा स्थिति यह है कि –  हम देखेंगे।
दरअसल यह बात जातीय जनगणना के बारे में नहीं लेकिन उससे जुड़े एक और जरूरी मुद्दे पर है। इस देश में ओबीसी की संख्या कितनी है, यह हमेशा विवाद और रहस्य का मुद्दा रहा है।
सबसे पहले जातीय जनगणना 1931 में बंद कर दी गई क्योंकि ऐसा माना जाने लगा कि जातीय आधार पर गिनती समाज को और ज्यादा बांटेगी । 2021 में राजनीतिक दलों का यह मानना था कि समाज कल्याण की योजनाओं का आधार सिर्फ आर्थिक ही नहीं हो सकता। जातीय पिछड़ापन अभी भी एक बड़ी समस्या है और उसका हल तभी निकल सकता है जब ठीक से पता हो कि कौन-सी जाति के कितने लोग हैं।
मोदी सरकार ने बीती जुलाई में जब कैबिनेट विस्तार किया तो जातीय समीकरण दुरुस्त करने की बड़ी कोशिश की। 2014 में बीजेपी ने जाति और दलगत राजनीति से ऊपर उठने की बात कही थी। हालांकि अब वह विस्तृत वर्णन दे रही है कि नई कैबिनेट में कितने एससी/एसटी मंत्री थे, कितने सवर्ण और कितने ओबीसी। पत्रकारों से वार्ता में पार्टी प्रवक्ता कहते नहीं थक रहे थे कि सरकार ने 77 में से 27 ओबीसी मंत्री बनाए हैं।
उम्मीद यह थी कि इससे समाज में एक अच्छा संदेश जाएगा और पार्टी को बल मिलेगा। लेकिन फिर सन् 80 से जातीय आधार पर राजनीति करने वाले दल कहां जाते? तो सेन्सस वाले साल में, संभवतः ओबीसी को न्याय दिलाने हेतु, राजनीतिक दलों ने मोर्चा खोला और जातीय जनगणना की मांग तेज की। यह मांग मुलायम सिंह यादव और लालू यादव समय-समय पर उठाते आए हैं। 2011 सेन्सस में इसपर कुछ काम भी हुआ लेकिन आंकड़े जारी नहीं किए गए। जानकारों का मानना है कि जातीय जनगणना अब
तक हो रही राजनीति का पूरा फॉर्मूला बदल के रख
देने की क्षमता रखती है। मंडल आयोग के अनुमान से ओबीसी 50% से ज्यादा हैं। लेकिन उसके बाद हुए कई अलग-अलग सर्वेक्षण अनुमान में बहुत बड़ी रेंज दे रहे हैं। मतलब अंदाजा 40 से 60 प्रतिशत लगाया जा रहा है। ओबीसी को आरक्षण 27% ही है। सोचिए, अगर आबादी 50% पार निकले और पता चले कि आरक्षण सिर्फ 27% है तो कितना बड़ा राजनीतिक बवाल खड़ा हो जाएगा। फिर सवाल भी पूछे जाएंगे कि अब तक आपने ओबीसी के लिए क्या किया?
अब आते हैं आरक्षण पर। जिस दर से निजीकरण
हो रहा है, उससे सरकारी नौकरियां और कम होंगी।
जो बची हैं उनपर आरक्षण के मौजूदा मापदंड लागू
हैं। लेकिन जरा सोचिए, जब आप कहीं नौकरी करते
हैं, तो कंपनी हर साल वार्षिक अप्रेजल में आपके कार्य
की समीक्षा करती है या नहीं? या बड़ी-बड़ी कंपनियां
अपने काम की समीक्षा करती हैं या नहीं? यहां तक
सरकारें भी योजनाओं की समीक्षा करती है। फिर यह
आरक्षण भारतीय राजनीति का ऐसा एटमी बम क्यों बन गया है, जिसकी कोई समीक्षा ही नहीं होती? जातियों का आरक्षण के नाम पर तमाम बड़े राजनीतिक आंदोलन होते हैं लेकिन कभी किसी राजनेता से यह नहीं सुना कि जिनको आरक्षण दिया है, उनका क्या हुआ? अगर ओबीसी जातियों में कोई एक आरक्षण का लाभ उठाने में सक्षम रही है तो समीक्षा कर के दूसरी, पीछे छूट गई ओबीसी जातियों को भी आगे क्यों न बढ़ाया जाए?

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